नूतन भोर
नूतन भोर
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क्यों बिछती हूँ ?
मैं सेज पर !
क्यों बिकती हूँ ?
बाजारों में !
क्यों अस्मत से ?
खिलवाड़ करूँ !
क्यों जीवन को ?
बर्बाद करूँ !
क्यों होता मेरा ?
बलात्कार !
क्यों होता मेरा ?
अपहरण !
क्यों मसली जाती ?
कलियों सी !
क्यों तोड़ी जाती ?
फलियों सी !
क्यों बनती मैं ?
फूलन देवी !
क्यों बनती मैं ?
द्रोपदी !
क्यों बनती मैं ?
निर्भया !
क्यों बनती मैं ?
दामिनी !
कभी सोचा भी है !!
कि दोषी कौन है ?
मैं या नर ??
शायद मैं ही हूँ….
क्यों कि मैंने ही तो
सहेजा है कोख में !
मैंने ही जन्मा है नर को
सृजना बनकर !
मैंने ही पोषित किया
पोषिता बनकर !
शायद मेरे ही ………
संस्कारों में कमी रह गई !!
पर ! क्या मैं दोषी हूँ ??
नहीं हूँ !!!
क्यों कि ?
मैंने तो मानवता सिखाई थी !
ये असुरता कहाँ से आई ??
खुद सृजित किया है मनुज ने |
उसने खुद ही जगाई है……….
वासना की दैत्या को !
और खुद ही जगाया है …….
अपने भीतर के राक्षस को !
जाने कब रूकेगा ये दौर ?
सुरक्षित रहूँगी जब चहुँऔर !
मेरी आत्मिक अभिलाषा !
यही है…..यही है ….यही है….
कि आए……………
मेरे भी जीवन में ,
एक नूतन भोर ||
(डॉ०प्रदीप कुमार “दीप”)