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30 Aug 2021 · 1 min read

नीर नयनों में नहीं लेकिन समुन्दर में उँफा

विकल हो जाती है माँ देख दुर्दिनता
सोच कर हालात कलेजा फट जाता
आत्मा चीत्कार कर उठतीं है उसकी
नयनों में शब्दों का सागर उमड़ पड़ता

बढ़ता जाता धरा पर अनाचार ,अत्याचार
देख कर माँ की छाती काँच-काँच हो जाती
पाने को अधिकार अपना रक्त मचल जाता
आवेगों की तीव्रता में तूफान सा आ जाता

आखर नहीं निकलते माँ के अधरों द्वार से
नित कोसती रहती दुष्टों अपलक नैनों से
तब दुर्गा ,चण्डी बन खड़ी हो उठती है माँ
काली बन अवनि असुरों का संहार करती

जब जब विकलता बढ़ जाती है भू पर
सुलग उठती है जनता ,सत्ता पलट जाती
हाथ खड़े होते है लाखों जनक्रान्ति को
भारत भू का हाल यह , क्यूँ न माँ दहाड़े

अब तक सौहार्द ,भाईचारे के बीज बोये
उनमें कटुता आई, तो कैसे चुप रहे माँ
बोलेंगी और झकझोरेंगी ,संहार करेंगी
ला उफान समुद्र सा शत्रुओं को मारेंगी

Language: Hindi
78 Likes · 359 Views
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