नीचे की दुनिया
ऊपर से नीचे आते हुए भूल जाती है कविता
चाहे जितनी ऊंचाई से शुरू हो
नीचे आकर ही उतर पाएगी
हृदय में,
बचा सकेगी अर्थ अपने होने का
ऊपर से उतरती नदी
नीचे आकर ही
बसाती है सभ्यताएं
नीचे आकर ही मिलता है
मां का तमगा
नदी को
निचलापन ही देता है सम्मान
नीचे जाने पर भूल जाती है
सीढ़ियां तक
ऊपर जाने की शुरुआत
नीचे से ही होती है।
सीढ़ी की पहचान
ऊंचाई नही वह निम्नता है
जहां से शुरुआत है ऊंचाई की
भूल जाता है आदमी भी ऊपर जाकर
नीचे की दुनिया..
जो
आदमी के पांव टिकाती है
जमीन पर
कराती है
आदमियत का एहसास
कविता का अस्तित्व नीचे है
नदी, सीढ़ी और आदमी का भी
फिर क्यों जाना चाहते है सब
ऊंचाई पर,
आखिर नीचे की दुनिया..
इतनी अंडररेटेड क्यों है?
©Priya