नींव
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उस मकां की हर एक ईंट से लहू निकला ,
जब उसकी नींव को बेरहमी से काटा गया था,
बंट गए थे कमरे, घर का कोना कोना,
तेरे मेरे के फेर में जब बाप को मारा गया था ।
वो खिड़की वो दरवाज़े चिल्लाते रह गए,
दीवारों ने भी अपने कान बंद किये थे,
छत भी थक कर खामोश हो गयी थी,
जब रिश्ते को लालच का थप्पड़ पड़ गया था ।
वो ज़मीन भी इस कदर फूटकर रोई थी,
बगीचे का हर पौधा मुरझा गया था,
वो आंगन में खड़ा नीम का पेड़ भी चुप था,
जिस पर सदियों का बचपन झूल गया था ।
ना जाने कितनी पीढियां गुज़री थीं यहां,
कितनी ही दीवाली पे कभी जगमगाया था,
आज पैसो के लालच ने वो सब उजाड़ दिया,
जिस रिश्ते की नींव को प्यार से, बनाया था ।
◆©ऋषि सिंह “गूंज”