नींद!
सोने को तब भी सच में मन कितना करता था
बिस्तर देख नींद को मन कितना मचलता था
और आज भी कुछ बदला नहीं वही आलम है
बिस्तर देखते ही सोने को मन बड़ा तरसता है!
मगर न तब नींद मिली न अब आँख में रहती है
दिमाग में फ़िज़ूल बातों की कश्तियाँ बहती हैं
क्या करें अभी नींद का साथ छूटा ही रहता है
नींद न आने के ख़्याल से मन डूबा ही रहता है!
तब काम की भगदड़ में हर लम्हा घिरा पाता था
नौकरी की ख़ातिर सुबह जल्दी ही उठ जाता था
दौड़-धूप करते बिस्तर देर रात ही मिल पाता था
पूरी नींद कहाँ मिलती थी बस थोड़ा सुस्ताता था!
देर रात तक जागता रहता हूँ उल्लू बना हूँ अभी
निद्रा रूठ जाती है अर्ध रात्रि पहर में अक्सर ही
मेरी अनिद्रा पीड़ा कहाँ लोग समझ सकेंगे कभी
जिन्होंने दिन-भर सोया देखा हो मुझे अक्सर ही!