मन-मंथन
एक आकृति एक अनुभूति,
भूति-भूति अभि-भूति हुई।
मन मंथन माटी और चंदन,
मथ-मथ के फली-भूति हुई।।
यह कर्म भूमि वीरों की धरती,
यहां सागर का मंथन होता है।
रण क्षेत्र में योद्धाओं का,
दावानल सा गर्जन होता है।
प्रजा और प्रितपाल पलक सब मलते हैं,
सागर जब विष से जलते हैं।
तब सत्य शिवानंद विष पीकर ,
धरती की परिणीति बदलते हैं।
सत्य स्वभाव सम्पन्न स्वर,
कुछ ऐसे भी पूर्ण रीत हुई।
एक आकृति एक अनुभूति,
भूति-भूति अभि-भूति हुई।
मन-मंथन सर्वाधिकार अधिकार सुरक्षित कविता द्वारा (राजेन्द्र सिंह)