भूल गया घर द्वारा मन
बचपन के वे खेल खिलोने, निश्छल चंचल प्यारा मन
ढूंढ रहा कागज़ की कश्ती, सुधियों में आवारा मन
कभी नगर में कभी गाँव में, कभी धूप है छाँव कभी
नदिया की धारा में तृण सा, भटक रहा बंजारा मन
कभी सोच में डूबा रहता, पुलकित होकर कभी कभी
हिरनी जैसा मार कुलाचें, दौड़े खूब कुँवारा मन
तुमसे आँखें चार हुई तो, खुशियाँ आईं जीवन में
भेद मिटा तेरे मेरे का, अब है एक हमारा मन
चले निरंतर कपिला सा वह, ऊँचे ऊँचे शिखर छुए
कभी बहे गंगा यमुना की, बन पावन जलधारा मन
गीत ग़ज़ल छंदों के नभ में, निशि दिन पंछी सा उड़ता
साध रहा सुर लय तालों को, मेरा ये इकतारा मन
ढूंढ रहा है मन के रिश्ते, लैपटॉप मोबाइल में
आभासी दुनियाँ में खोया, भूल गया घर द्वारा मन