निशान
मिट गए सारे निशान हमारे
उनके घर की चौखटों से
दरें दीवारें जिस घर की हमसे
मुस्कुराकर ही सदा मिली है ।
क्यों ये दीवारें न पहचान पाती
मेरी शख्सियत वही पुरानी ।
खड़े आज हम वहीं कुछ इस तरह से
कि खुद के होने का भी भरम है।
वही ये घर है वही ये मैं हूँ
नहीं मगर वो बात पहले जैसी
वो प्रेम, विश्वास सब गुमशुदा है
हर इक आँख में अजनबी छवि है।
छलक-छलक कर इन आंसुओं ने
धो डाले मन के गुमान सारे
न तेरा कोई अब इस रह गुजर पर
पीड़ा ने मन को ये आवाज दी है।