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20 Mar 2024 · 1 min read

निलय निकास का नियम अडिग है

तन तो बस है एक घरोंदा मिट्टी का
“साँस ” के वास का अल्प ठिकाना

नए कुछ घर हैं मज़बूत खड़े
समय के जल – और हलचल से
कुछ हैं अब कमजोर पड़ीं
हैं तो कच्ची मिट्टी का ही घर

भ्रम में रहती साँसें अपनी
नए घरोंदों में रहती हुईं

अनजान इस सच्चाई से के
साँस ही प्राण – और प्राण ही साँस है

और हर “साँस” की
अवधि है गिनी हुई

नियति की भी बात अजब है
कभी घरोंदों से वो खेलता
कभी तोड़ता चुपचाप उन्हें

काल का काल भी है निश्चित
गिनती ख़तम होते ही “साँस” की

प्रस्थान है निश्चित
निलय छोड़ता हर “प्राण” है

. . . . . . . अतुल “कृष्ण”

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