निर्लज्ज चरित्र का स्वामी वो, सम्मान पर आँख उठा रहा।
कर्त्तव्य पथ पर अडिग हूँ मैं, और रणक्षेत्र वो सज़ा रहा,
विप्लव तान के बीच फंसी, और शंखनाद से वो बुला रहा।
कभी भेदा था, जिसने हृदय को, वही भेदी जाल बिछा रहा,
निर्लज्ज चरित्र का स्वामी वो, सम्मान पर आँख उठा रहा।
मूक-बधिर बना समाज ये, अब भी जब वो गुरर्रा रहा,
छलनी कर निर्दोष का सीना, दोषी से मित्रता निभा रहा।
तू भरता जा घड़ा पाप का, पीछे बैठा कर्म भी देख मुस्कुरा रहा,
अश्रु मेरे हैं सुख चुके, गिरता लहू बस कृष्णा-कृष्णा पुकार रहा।
फिर खींच कर निर्बल का आँचल, उस चंडी को तू जगा रहा,
वो देख रहा बंद त्रिनेत्रों से भी, उससे तू क्या छुपा रहा।
अपने कुटिल षड्यंत्रों से, मेरे रस्ते में शूल उगा रहा,
और जपता है नाम श्री राम को यूँ, की तुझे देख दुस्साशन भी लज्जा रहा।
अग्निदाह कर औरों के जीवन का, जो तू यूँ आज इठला रहा,
प्रतीक्षा में खड़ा काल भी, देहरी पर तेरे मंडरा रहा।