” निर्मोही बरखा “
ये कैसी निर्मोही बरखा है
इसने सब मोह पानी में दे पटका है ,
कुछ दिन पहले ही तो छाई थी छत
कैसे संभलेगी मूसलाधार में इस वक्त ,
जमीन तो पहले ही भर गई है जल से
भरना पड़ेगा बच्चों का पेट अब छल से ,
ये झमझम बरसती सावन की बूंदों को देख
मन तो खुश होता है भरते है जब खेत ,
एक तरफ ये पानी भरता है पेट
दूसरी तरफ ये पानी काटता है पेट ,
क्या करें जीवन मझधार में है
हमारा भविष्य इन मेघों की धार में है ,
कम बरसें तो सूखे रहें भूखे रहें
ज्यादा बरसने का दुख किससे कहें ,
कैसी विपदा के मारे हम निर्धन किसान हैं
हमारी तो आस बस उपर बैठा भगवान है ।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा )