निर्भया
16 दिसंबर की ही वो सर्द रात जब एक लड़की के साथ अमानवीय खेल खेला गया था। परंतु ये वहशी खेल आज भी जारी है। कोई न कोई निर्भया यहाँ नज़र आती ही रहती है।
उस निर्भया को एक अश्रु पूरित श्रद्धांजलि के रूप में मेरी यह रचना समर्पित है।
एक स्त्री की आत्मा को जब ईश्वर इस संसार में भेजने को उद्यत होते हैं तो वो आत्मा पृथ्वी पर आने से इंकार कर देती है और प्रभु से याचना करती है-
एक जंगल है दुनिया,
जहाँ कुछ भेड़िए रहते हैं।
नोचते हैं मांस खाल,
इंसान इनको कहते हैं।
है हवस आँखों में इनके,
औ’ आत्मा मरी हुई।
देख अबला नारी को किसी,
वहशी चमक आँखों की बढी़।
न बख्शो हे प्रभु,
ये जंगली दुनिया मुझे,
फिर कोई निर्भया,
नहीं बनना है मुझे।
हे प्रभु बना दो मुझे,
पशु या कोई कृमि।
पर किसी निरीह इंसान सी,
जिन्दगी मुझे जीनी नहीं।
नोच खाएँगे ये दानव,
मुझे नारी जानकर।
करो दया मुझ पर प्रभु,
सेवक अपनी मानकर।
सोनू हंस