निर्णय
चार अक्टूबर मेरा जन्मदिवस
हर साल आता
नये उमंग, नयी उम्मीद
नया उत्साह साथ लेकर
देते बधाईयाँ सभी स्वजन
स्वयं मिल या अपने संदेषो से।
लेकिन खड़ा पाता जब स्वयं को मैं
सामने मोमबत्तियों के
उमड़कर आते कुछ प्रंश्न सामने
(प्रश्न) पूछते तू अपनी जिदंगी से
इतने साल बीतने का शोक मना रहा
या कर रहा स्वागत आज
भविश्य के दिनों का।
बुझा रहा क्यों…….. इन प्रकाश स्तम्भों को
जो जलाकर स्वयं को
करते हैं प्रकाशित हमारा जीवन
और बुझाकर इन्हे स्वयं ही
कर रहा अंधकारमय अपने दिनों को
सुन आवाज अंतर्रात्मा की
पड़ा ‘‘अऩस’’ असमंजस में करे क्या…..
मनाये षोक सुनहरे पलों को बीत जाने का
या बनाये सुनहरा, आने वाले कल को।
अकस्मात् आया विचार
सोच रहा क्यूॅ व्यर्थ में इतना
उस कल के बारे में
एक जो बीत गया है
और
एक जो आने वाला हैं
बना ‘‘अऩस’’ अपना भविष्य सुदृढ़
अतीत की इस मजबूत नीव पर।