नियमानुसार कार्य ( हास्य कथा)
नियमानुसार कार्य ( हास्य कथा)
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किसी को उम्मीद नहीं थी कि छत इस प्रकार से गिरने लगेगी। सरकारी दफ्तर था। पुरानी इमारत थी। छत पर पुराने जमाने का लिंटर था, जो कड़ियों का था। लकड़ी की कड़ी भी कम से कम सौ- सवा सौ साल पुरानी होगी।
सरकारी दफ्तर का हिसाब यह था कि यद्यपि भवन काफी बड़ा था। कई कमरे थे और विभिन्न सरकारी परियोजनाएं वहां से संचालित होती थीं, लेकिन हालत यह थी कि ले- देकर एक ही कमरे में सब लोग दिनभर गप्प- बाजी करते रहते थे।
कमरे में बीचोबीच एक बड़ी सी मेज थी, जिसके चारों तरफ सारा दफ्तर जाड़ों में मूंगफली खाते हुए पूरा दिन बिताता था।
एक दिन की बात है । एकाएक छत से चूँ- चूँ की आवाज आई । लकड़ी की पुरानी कड़ी अपनी जगह छोड़ने लगी। इससे पहले कि कोई कुछ समझ पाता, रामू ने तपाक से मेज पर चढ़कर गिरती हुई कड़िया को अपने हाथ से थाम लिया। फिर भी आधी कड़ी टूट कर लगभग 2 इंच नीचे आ चुकी थी। सब ने देखा और महसूस किया तो दांतो तले उंगली दबा ली।
” तुमने तो कमाल कर दिया ! अगर तुम न होते तो आज इस भारी भरकम लकड़ी की कडिया के नीचे दबकर न जाने कितने लोग मर जाते ,कितने जख्मी हो जाते !”किसी ने कहा।
रामू बिना कुछ बोले अपने हाथ से कड़िया को थामे हुए था। रामू की दशा देखकर उसका सहकर्मी श्यामू जो बाहर काम कर रहा था, दौड़ा दौड़ा आया। दोनों चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी थे । श्यामू ने कहा” फिकर मत करो रामू ! मैं अभी बल्लियाँ खरीद कर लाता हूं “।
बिना किसी से पूछे श्यामू दौड़ता हुआ बाजार चला गया और 10 मिनट के भीतर 11 फीट ऊंची तीन बल्लियां लेकर दफ्तर में दाखिल हुआ। सीधे अफसर के कमरे में गया । वह अभी भी अपने कार्यालय कक्ष में दैनिक अखबार पढ़ रहे थे, यद्यपि दोपहर के 12:00 बज चुके थे।
” ₹420 का पेमेंट कर दीजिए ! ..बल्लियों का कर दीजिए” श्यामू ने विनम्रता से कहा। अफसर ने क्लर्क को बुलाया । कहा “बाबूजी ! यह ₹420 मांग रहे हैं ,यह बल्लियाँ खरीद कर लाए हैं ”
“बल्लियों की आवश्यकता तो है ,मगर सरकारी खरीद ऐसे थोड़ी हो जाती है । कोटेशन लाए हो ? जीएसटी का बिल है ?”
श्यामू बोला “यह कोटेशन क्या होता है? हम नहीं जानते …”
“बल्लियाँ कहां से खरीद कर लाए ?”
“हरी बाबू की टाल से लाए हैं।”
” इसके अलावा दो जगह से और जाकर पूछो कि बल्लियाँ कितने की मिलती हैं ? अगर दूसरी जगह सस्ती मिल जाए तो वापस करके आओ और अगर दो स्थानों पर बल्लियों का मूल्य अधिक है, तब भी दोनों से मूल्य लिखवा कर लाओ ।उसके बाद ही खरीद का कार्य संपन्न हो सकता है।”
” लेकिन साहब ! पूरे शहर में बल्लियों की सिर्फ दो ही दुकानें हैं ।एक हरी बाबू की और दूसरी दीनानाथ की ।दीनानाथ के यहां तो सामान मिलता नहीं है और 11 फीट की तो मिलेगी ही नहीं । एकाध पड़ी भी होगी तो कमजोर होगी , जिसे लेने से कोई फायदा नहीं ”
बाबू ने सुनकर मुंह बिचकाया “हमें इन सब बातों से कोई मतलब नहीं । खरीदना है तो कुटेशन लाओ । फिर पेमेंट होगा ।”
“फिर क्या करूं ? बल्लियाँ वापस कर आऊँ ? ”
” हां वापस कर आओ ”
“और रामू का क्या होगा ? वह क्या जिंदगी भर ऐसे ही खड़ा रहेगा ?”
“उसका सोचेंगे “-बाबू बोला।
शामू बल्लियाँ वापस करने चला गया। उधर अफसर ने किराए की बल्लियां मंगाने की योजना बनाई। शामू ने चिढ़कर पूछा”अब कुटेशन नहीं चाहिए?”
” कोटेशन की जरूरत केवल खरीदने में होती है ,किराए पर कोई चीज लाने में कोटेशन नहीं चाहिए होती है।”
“आप जानें, आपका काम जाने। लेकिन रामू को जरा जल्दी उतरवा लो” कहते हुए शामू चला गया ।
इधर शामू बल्लियाँ वापस करने गया,उधर अफसर बल्लियाँ किराये पर लेने पहुंच गए। 10 मिनट में आ गयीं। रामू को मुक्ति मिली। अब वह आजाद था ।
अगले दिन अफसर ने शामू को ₹150 का चेक दिया और कहा” इसे हरी बाबू को दे आओ”।
150 का चेक देखकर शामू को अचंभा हुआ। बोला “क्या बल्लियों का किराया है यह ?”
“हां “-अफसर का संक्षिप्त जवाब था।
“एक दिन का ? ”
“और क्या एक साल का ?”
“लेकिन साहब ₹150 रोज बल्लियों का किराया ?? इससे तो 420 की खरीद लेते !”
” तुम्हें कितनी बार बताया कि बिना तीन कोटेशन के वस्तु की खरीद संभव नहीं है। नियमानुसार बिना कुटेशन के केवल किराए पर ही वस्तु मंगाई जा सकती है ।”-अफसर बोला।
“नियम गया भाड़ में !”- कहकर भुनभुनाता हुआ श्यामू चेक लेकर हरी बाबू की टाल में दे आया।
इस तरह जब चार-पांच दिन रोजाना चेक भिजवाने का सिलसिला चला तो एक दिन अधिकारी ने शामू को बुलाया । क्लर्क बराबर में बैठा हुआ था ।अधिकारी ने कहा” शामू ! अब तुम पैदल चेक देने नहीं जाओगे। रिक्शा से जाओगे ।रिक्शा से लौट कर आओगे।”
शामू अचंभित था ।बोला -“साहब ! काहे के लिए ₹10 आने के, ₹10 जाने के खर्च किए जाएं ।थोड़ी सी दूर पर ही तो है।”
बाबू बोला” ₹10 नहीं । तीस रुपये जाने के, ₹30 आने के। कुल मिलाकर ₹60 रोज आने-जाने का खर्च तुम लोगे। ₹20 तुम्हारे, ₹40 हमारे”
सुनकर श्यामू कांप उठा। बोला “साहब ! यह हमसे नहीं होगा ।फर्जी बिल हम नहीं देंगे।”
” नौकरी करनी है तो बिल भी दोगे” इस बार अफसर ने कड़ाई के साथ कहा ।
सुनकर शामू सहम गया। बोला” ठीक है “।
फिर शामू रोजाना अधिकारी से बीस रुपये नगद लेकर रख लेता था और ₹60 का बिल अधिकारी को थमा देता था ।इस तरह सिलसिला चलता रहा। धीरे- धीरे श्यामू को भी ₹20 प्रतिदिन मिलने में अच्छा लगने लगा।
एक दिन अधिकारी बोले “क्यों शामू ! आज भी 20 रुपये लोगे या पैदल चेक पहुँचाने की व्यवस्था कर दी जाए ?”
शामू मुस्कुराया । बोला “जो चल रहा है, ऐसा ही चलने दीजिए । दस महीने से मैं चेक देने जा रहा हूं । करीब करीब चालीस हजार का खर्चा बल्लियों के ऊपर आ चुका है ।इससे अच्छी और क्या बात होगी ? नियम के अनुसार तो चलना ही पड़ेगा ? ”
अधिकारी मुस्कुराते हुए बोला ” तुम भी समझ गए न कि सरकारी नियम के अनुसार काम करना कितना जरूरी होता है ”
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लेखक : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा , रामपुर(उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451