नित हारती सरलता है।
जगती के उदधि में
विचारों की रज्जु से
उर मदराचल सा मथता है
तब अथक प्रयास से
नवनीत कुछ निकलता है ।
सूर्य सिर पर तप रहा
खार जल तन सह रहा
जलराशि से घिरे हुए
पर प्यास की विकलता है।
इस प्यास को सहन करते
रोज जीते रोज मरते
बस प्राण है सधे हुए
क्या विफल सफलता है ।
हृदय में विचलन बहुत
पर हास अधरों पर सजा
हम जो है वो हो न पाये
क्या अजब सबलता है ।
सब यज्ञ पूर्ण कर रहा
तन हवन में तप रहा
जीतते सब कुटिल मन
नित हारती सरलता है ।