नित्य ईश की सत्ता है
यह दुनिया दुखमय अनित्य है, नित्य ईंश की सत्ता है।
उसकी इच्छा बिना न हिलता, तरु का कोई पत्ता है।।
उसको जहाॅं बुलाओ आता, वह समीप है दूर वही।
वह सत्-असत्, परे दोनों से, सारे जग का नूर वही।।
वह ही घोर-अघोर, शिव-अशिव, भत्ता और अभत्ता है।
उसकी इच्छा बिना न हिलता, तरु का कोई पत्ता है।।
वही दर्प से रहित हमेशा, दिखलाता है दर्प वही।
वह सारे जग से न्यारा है, वही गरुड़ है सर्प वही।।
वही विषवमन करने वाला, वह ही मधु का छत्ता है।
उसकी इच्छा बिना न हिलता, तरु का कोई पत्ता है।।
वह ही देव, दैत्य है वह ही, वह रवि-शशि अवनी-अम्बर।
वही जनक, वह ही जननी है, वह कहलाता विश्वम्भर।।
वह सदैव सर्वत्र उपस्थित, वह काशी – कलकत्ता है।
उसकी इच्छा बिना न हिलता, तरु का कोई पत्ता है।।
आओ उसको नमन करें हम, आओ उसको पहचानें।
उससे पृथक नहीं हैं हम सब, एक दूसरे को जानें।।
सबमें उसका रूप विलोकें, खोजें कहाॅं चकत्ता है।
उसकी इच्छा बिना न हिलता, तरु का कोई पत्ता है।।
महेश चन्द्र त्रिपाठी