निगाहें
निगाहें मेरी मुझी को ठगती हैं,
बात कुछ होती है, कह कुछ जाती हैं,
अपनी भाव-भंगिमा देख कर कभी खुद पर हँसी आ जाती है,
बिना एक लफ्ज़ कहे न जाने कितनों को धोखा दे जाती है,
कसूर मेरा नहीं होता, यहाँ पता तक नहीं चलता व्यक्त क्या हो गया,
इरादा कुछ कहने का होता है, अर्थ कुछ निकल जाता है,
फिर सर पकड़ती हूँ, ये मेरे साथ क्यों होता है,
सूफ़ी बंदी हूँ, बिना बात बदनाम हो जाती हूँ,
हाँ कभी बोर होती हूँ, लोगों को तंग करने का मन कर जाता है,
अब जब सोचना ही गलत है तुमने, थोड़ी और वजह दे दूँ,
मैं नहीं दूँगी तो ऊपरवाला महान,
करता-करवाता वो है, फंस मैं जाती हूँ,
कभी किसी से कहूँ मेरे मन में तब क्या चल रहा होता है,
सामने वाला क्या, मैं स्वयं हँस दूँ,
पर कोई पूछता नहीं, मैं बताती नहीं,
बिना माँगे अपनी सफाई देने वाला चोर कहलाता है…