निखर गए
ज़रा सी चोट से टूटकर बिखर गए,
कांच के टुकड़े थे पता नही किधर गए।
रहा न अब वजूद अपना,
तुम थे सब जगह, जिधर गए।
रहते है गुमनाम इन दिनों,
जो तुम्हारे साथ है वो तो संवर गए।
बड़ी तमन्ना थी ज़िंदगी में कुछ करने की,
सपने अब कुछ करने के तितर बितर गए।
मोहब्बत का दुष्प्रभाव एक ये रहा,
ज़माने के सारे लोग दिल से उतर गए।
रहता नही ख़ुद पर वश अपना,
पता नही चलता इधर गए या उधर गए।
तुझे अपनी संगत पर ध्यान देना चाहिए ‘अभि’
बुरे लोग भी तेरे साथ आने से निखर गए।
© अभिषेक पाण्डेय अभि