निकल पड़े है ।
निकल पड़े है अब हम
नंगे पांव शहर से दूर
बच्चे बूढ़े सभी पूछ रहे
कैसे चले पैदल हुज़ूर
दो वक़्त रोटी के ख़ातिर
निकले थे अपने कोठरी से
बस इतनी सी थी मेरी गलती
इसमें भला मेरा क्या कसूर
परिवार का पेट भरने को
छोड़े थे जो कभी अपने द्वार
आज भुख लाया सड़क पे
निकल पड़े हम अपने घरवार
ना कोई गाड़ी न ही मोटर
पैदल ही निकल चुके है हम
एक कांधा पे बेटी बैठी
दूसरे पर है बेटा सवार ।
कोई तो रोके हमे जाने से
जो कहता था हमें परिवार
उसकी छतें बनाई हमने
खिड़की भी बनाया था
आज उसी खिड़की से देख रहे थे
हमपे गिरता हुआ पहाड़
पड़ोस में रहने वाले तो
सब देख रहे थे सिर्फ़ और सिर्फ़
गाँव मे तो ऐसा नही होता था
शहरों जैसा व्यवहार ।
भूख से कितने घर उजड़े
कोई चलते चलते थक गया
कोई इधर उधर पूछे
भाईसाब किधर ये सड़क गया
इसे भूख कहे या अत्याचार
या कह दे किस्मत का मार
कोई बता दे आख़िर इसका
है कौन यहाँ जिम्मेदार ।
– हसीब अनवर