निकलो…
मकड़ी स्वयं कहाँ फँसती है
चाहे जितने भी जाल बिछाये
रिश्ते स्तिथि या ख़्याल जाल से
हम निकल न पाये
निकलो,निकलो वहाँ से जहां
तुम हो न हो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता
निकलो जहां पका रिश्ता
पल पल है गलता सड़ता
निकलो हर वहाँ से जहां
आपकी ज़रूरत न हो
निकलो वहाँ से भी जहाँ
टूटे दिल की मरम्मत न हो
निकलो वहाँ से जहां प्यार
उपहार नहीं ख़ैरात लगे
निकलो वहाँ से जहां
तुम्हारी कही बात बात न लगे
निकलो हर उस जगह से जहाँ
तुम्हारी कद्र न हो इज्जत न हो
निकलो वहाँ से भी जहाँ
तुम्हारी मासूमियत की हिफ़ाज़त न हो
निकलो उस दोस्ती से जहाँ
हंसी तुम्हारे साथ नहीं तुम पर हो
निकलो उस महफ़िल से जहां
पीठ पीछे बातें अक्सर हो
निकलो हर उस रिश्ते से जिसकी किश्तें
अपनी आज़ादी से चुका रहे हो
अच्छा बनने के चक्कर में
ज़िंदगी से मात खा रहे हो
माना निकलना इतना आसान नहीं
तो कठिन भी नहीं
बस नदी बन बह निकलो
देखना निकलना नामुमकिन भी नहीं
निकलो थामे हौसलों की लहर
उम्मीदों की सहर सुहानी
पानी की पन्नों पर लिख डालो
ख़ुद अपनी एक नई कहानी
वो कहानी जिसके हर सफ़हे पर हो
नया तजुर्बा नये जज़्बात
यूँ लिख डालो मानो ज़िंदगी से हो रही
तुम्हारी पहली मुलाक़ात
ऐसी कहानी जहां तुम बन चिड़िया
भरो उड़ान हो गगन गवाह
खिल के हंस लो खुल के रो लो
बतिया सको बेख़ौफ़ बेपरवाह
लोग क्या कहेंगे क्या सोचेंगे
ये उनका काम उनपर छोड़ दो
कायदों की सरहदों के पार तुम
अपनी कहानी को एक नया मोड़ दो।
रेखांकन।रेखा ड्रोलिया