निकले हैं वो नज़र के तीरो-कमान लेकर
निकले हैं वो नज़र के तीरो-कमान लेकर
जाएं कहाँ दिवाने अपनी भी जान लेकर
तन्हा ही जी रहे हैं जाएं किधर अकेले
बिन आपके जहाँ में दिल का मकान लेकर
राहे-वफ़ा पे अब तक आए हैं इतना आगे
उनकी वफ़ा का लेकिन दिल में गुमान लेकर
दुनिया भुला के राधे चुपचाप सुन रही हैं
किशना जी आ गए हैं मुरली की तान लेकर
पूछे अगर न कोई करना है क्या समझ लो
ख़ामोश बैठ जाओ अपनी ज़ुबान लेकर
अपनी तो उम्र ढलती ये बाग़ अब तुम्हारा
जाओ कहीं भी जाओ सारा जहान लेकर
पड़ती ज़मीन की भी हर हाल में ज़रूरत
यूँ जी न पाओगे तुम ये आसमान लेकर
रखते हैं जान अपनी जो दांव पर हमेशा
लड़ते हैं सरहदों पर ज़ीशान आन लेकर
‘आनन्द’ शाम तक ही लौटेगा वो परिन्दा
यूँ जाएगा कहाँ वो ऊँची उड़ान लेकर
– डॉ आनन्द किशोर