“ना जाने क्यों”
लाख पत्थर हो जाती हूँ मैं पर
ना जाने क्यों,
देखकर के तेरी एक झलक,
मैं बर्फ की सील की तरह पिघल जाती हूं।।
बहुत अटल होते है इरादे मेरे पर
ना जाने क्यों,
तेरी एक बात पर ही “मलिक”
खुद से किया कठोर वादा बदल जाती हूं।।
कितना ही दर्द देता है मुझे तू
पर ना जाने क्यों,
आंखों में जो है तस्वीर तेरी,
तुझे देखते ही बचपन सी मचल जाती हूँ।।
सोचा रास्ता बदल लूंगी पर,
ना जाने क्यों,
बढ़ने लगी मंजिल की तरफ
जाना पहचाना वो रास्ता भूल जाती हूँ।।
लाख खफा हो जाती हूँ तुझसे,
ना जाने क्यों,
सुनकर तेरी जुबान से एक लफ्ज
हर बार मैं तेरा वही प्यार कबूल जाती हूं।।
हिम्मत बहुत है चलने की,
ना जाने क्यों,
तुझे खुश देखने के लिए “मलिक”
हर बार उसी भूलभुलैया में रूल जाती हूँ।।
सुषमा मलिक,
रोहतक (हरियाणा)