ना जाने क्यों जिन्दगी से मुँह माैडने लगा हूँ अब तो
चलते – चलते उन रास्ताें थकने लगा अब तो
जहा कर गुजरे वाे, उनके पैरों के निशान ढूंढने लगा हूँ अब तो
खुद से ही खुदका भ्रम ताेडने लगा हूँ अब तो
ना जाने क्यों जिन्दगी से मुँह माेडने लगा हूँ अब तो
बीते हुए पलाें काे याद करके राेने लगा हूँ अब तो
भटकते मुसाफ़िर से ही अपनी मंजिल का रास्ता पूछने लगा हूँ अब तो
डूबते हुए अश्काे काे अपनी आँखों से निकालने लगा हूँ अब तो
ना जाने क्यों जिन्दगी से मुँह माेडने लगा हूँ अब तो
जो जख्म खाए माेहब्बत में उन जख्माे काे देखकर राेने लगा हूँ अब तो
इन्ही जख्माे काे भरने की भींक मागने लगा हूँ अब तो
अपनी ही बनी बनाई काे ताेडने लगा हूँ अब तो
ना जाने क्यों जिन्दगी से मुँह माेडने लगा हूँ अब तो
दर्द बहुत दिये उसने, उस दर्दे दिल को बयां करने लगा हूँ अब तो
इश्क़ की पतंगे आजकल कटवाने लगा हूँ अब तो
खिलते फूल काे ताेडने लगा हूँ अब तो
ना जाने क्यों जिन्दगी से मुँह माेडने लगा हूँ अब तो
®…© राजू खान