नारी
मनीषियों संतो शूरवीरों की जगत जननी ।
ममता से सहेजती संस्कारों से सँवारती त्याग की प्रतिमूर्ति ।
जीवन पथ पर बनी प्रेरणा स्रोत वह जीवनसंगिनी।
सहनशीलता की पराकाष्ठा का साकार रूप लिए संघर्षरत स्वर्ग से सुंदर घर संसार निर्माण में लीन।
अविचिलित अपनों के उज्जवल भविष्य की चेष्टा में तल्लीन ।
असीम आत्मबल लिए दूसरों का संबल स्रोत बनी। फिर भी निरूपित होती अबला के नाम से ।
किंचित् हमारे विकार, विफलता ,और कुँद मानसिकता उसे सबला कहने से झुठलाते हैं ।
हमारी दंभी पुरुष मनोवृति इस सत्य को मानने से नकारती है।
हम भूल जाते हैं उसकी देन हैं हम, यह हमारा अस्तित्व ।
और नाहक प्रयत्न करते हैं मिटाने उसे भ्रूण में ।
हमें याद नहीं रहती वह पुरानी कहावत है ” ना रहेगा बाँस तो कहां से बनेगी और बजेगी बाँसुरी”।
क्योंकि बिना बाँस की बाँसुरी से सुर नहीं आर्त्तनाद ही निकलेगा ।
जब संस्कार ही नहीं होंगे तब मानव नहीं क्लोन रूपी दानव निर्मित होंगे।
एक दूसरे के प्रतिरूप बने तथाकथित मानव अपनी विनाश लीला से ऐसा उत्पात मचाएंगे ।
तब यह वसुंधरा जो स्वर्ग से सुंदर लगती है ,नर्क से भी बदतर रसातल पर पहुंच जाएगी ।