नारी
नारी
पहनाव पूरा तन ढकती थी,
अब नए कट में ओपन करती है।
घूंघट का ढकना,शरमा के चलना,
सबके मन को भाती थी।
ओ नारी कुछ और थी,
ये नारी कुछ और है।
सिंदूर टिकली आलता रंग,
सुंदर सुंदर निखरती थी।
आज जमाना बदल रहा,
अब ब्यूटी पायलर जाती ,
किसी की बात नहीं मानती ।
सुंदर चेहरा को,नर्तक जैसे बनाती हैं।
ओ नारी कुछ और थी,
ये नारी कुछ और है।
बड़ों का नाम नहीं लेना,
छोटो को जी कहके बुलाना,
खूब संस्कार सिखाती थी।
अब जमाना बदल रहा है,
नाम पुकारना,आवाज लगाना,
जोर जोर चिल्लाती है।
ओ नारी कुछ और थी,
ये नारी कुछ और है।
बेटी बहू मां बनकर,
सारी जिम्मेदारी निभाती थी।
खेत जाती काम करती ,
घर का बोझ उठाती थी।
अब जमाना बदल रहा,
पिकनिक जाती,पार्टी मानती।
सोपिंग करती,मौज मानती।
खूब सारा धन लुटाती है।
ओ नारी कुछ और थी,
ये नारी कुछ और है।
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रचनाकार कवि डीजेन्द्र क़ुर्रे “कोहिनूर”
पीपरभवना, बिलाईगढ़, बलौदाबाजार (छ. ग.)
8120587822