नारी
लिख सकू तो क्या लिखूं तुम पर हे नारी,
कभी पड़ जाती हो सब पर भारी कभी खड़ी रहती हो बन बेचारी। कभी बन कल्पना चावला उड़ाती हो विमान कभी हिंसा की होकर शिकार दे देती हो अपनी जान ।
कभी मुक्केबाजी हो यह कुश्ती में पटक पटक कर अच्छे-अच्छे को, मेडल जीत भारत को दिलाती हो पहचान,
एक तरफ एसिड अटैक यौन शोषण की हो जाती हो शिकार
कहीं काली कहीं दुर्गा कहीं देवी बना पूजा जाता है नारी तुम हो श्रेष्ठ कहां जाता है शास्त्रों में तुम्हारी महिमा का वर्णन है अपरंपार आखिर तुम्हारी क्या है पहचान ।
अपने ही घर में बचपन से बड़े होने तक पराया धन समझ पाली, गई ससुराल में जाकर दूसरे की बेटी कहलाई गई,
पूरा जीवन कर देती हो औरों के लिए त्याग अपना कुछ भी नहीं और कहलाती हो महान।
कभी पिता कभी पति कभी भाई इनके अरमान पूरे करते-करते रह जाती हो स्वयं मुरझाई। सारा दर्द तुम्हारे हिस्से में और कमजोर भी तुम ही कहलाई।
कभी रोती हो कभी सारे आंसू पी जाती हो डटी रहती हो तुम,
ना कभी हारी हो क्योंकि तुम नारी हो।
क्योंकि तुम नारी हो।