नारी से
कितनी पदमिनियाँ जल बैठीं
ज्वाला के अंगारों से
कितनी सीतायें चुप बैठीं
रावण की हुंकारों से।
लेकिन अब भी छद्म वेश में
कितने खिलजी चलते हैं
अब भी अपना वेष बदल कर
कितने रावण पलते हैं।
नारी जो वेदन सहती थी
आज भी वही कहानी है
नहीं पुरानी व्यथा कथा
यह नित्य सनातन वाणी है।
वह चलती है अंगारों पर
वे मन्द मन्द मुस्काते हैं
वह बिकती है बाज़ारों पर
वे दौड़े दौड़े आते हैं।
आज भी वह आशंकित है
आस पास की श्वासों से
आज भी वह आतंकित है
निर्मम निर्दय पाशों से।
तुम जलो नहीं पर काल बनो
खलनायक से किरदारों का
तुम मिटो नहीं संत्रास बनो
लिप्सा के पहरेदारों का।
तुम काली बन कर टूट पड़ो
दैत्यों का तुम संहार करो
न बन बैठो मोहक मूरत
आक्रांता का आहार करो।
विपिन