नारी सम्मान का यथार्थ
सुना है मेरे देश का समाज प्रगति कर रहा है ,
वह बेटी बचाओ,बेटी पढ़ाओ के गीत गा रहा है ,
उन्हें खूब पढ़ो खूब बढ़ो के आशीष दे रहा है ,
ऐसे ही अनेक नारों में बेटियों पर प्यार लुटा रहा है ,
सुनने में यह मंत्र सबको ही बड़ा लुभा रहा है ,
पर भीड़ भरी सड़कों से और चौराहों से निकलते हुए
हकीकत सामने आ ही जाती है
जब छोटीे छोटी कहा सुनी के अपशब्दों में एक दूसरे की
माँ – बहन और बेटियाँ निकृष्टता से प्रयोग की जाती हैं।
रास्ते से गुजरते हुए
एक आदमी से दूसरे आदमी की
माँ बहन बेटी का यह वाचनिक अपमान दिन भर में
न जाने कितनी बार
कानों में पड़ता है !
यह सब सुनकर मन विचार करता है कि
क्या यही है मानव की तरक्की
और औरत की बढ़ती शक्ति ?
मुझे तो लगता है
सड़क और चौराहों की भीड़ में
उलझे आदमी की मानें तो
औरत में भले ही कितनी शक्ति हो
पर उसका अपना कोई अस्तित्व नहीं
वह तो जैसे आदमी से जुड़ा सिर्फ एक तत्व है
जिसे एक आदमी दूसरे पर क्रोध में अपशब्दों के रूप में
बड़ी आसानी से प्रयोग कर सकता है ,
समाज में जब यह परिदृश्य देखती हूँ तो लगता है कि
जब बोल चाल की भाषा में
आपसी झगड़ों में ही हम
माँ बहन बेटी को सम्मान नहीं दे सकते
तब इन सब बड़े नारों
या योजनाओं का क्या औचित्य ?
चाहती हूँ समाज में उसका सार्थक सम्मान हो
अपशब्दों में न उसका नाम हो ,
किसी एक के द्वारा दूसरे की
माँ बहन का न कहीं अपमान हो,
जिससे सारी योजनाएँ ,
दीवारों पर सजे पोस्टर
और सभी नारे
सार्थक और यथार्थ हों ।
डॉ रीता
आया नगर,नई दिल्ली ।