नारी मांसल पिंड नहीं
जब भी कोई चीख़
दफ़न होती है
आसमां के सीने में।
तड़पकर मरती है
जब भी कोई गूँज
धरती के किसी कोने में ।
आ खड़े होते हैं हम
संवेदनहीन मूक चौराहों पर
नारी अस्मिता का प्रश्न लिये हाथो में
और ढूँढने लगते हैं जवाब
मोमबत्ती के धुँधले मरते प्रकाश में ।
क्या कभी कोई जवाब मिल पाया?
नहीं, कभी नहीं, मिलेगा भी नहीं
कैसे मिलेगा ?
कैद जो है, हमारे ही अपने अंतस् में
न जाने कब से
और हम ढूँढते हैं उसे
भीड़ की आँख में ।
आह हमारा ये कृत्य
अपनी ही लाश पर
अपना नृत्य….
यदि सच में, हाँ सच में
फ़िक्र है हमें नारी सम्मान की
परवाह यदि तरुणी मुस्कान की
तो छाँटना होगा शैवाल हवस का
सोच के सरवर से
बोने होंगे बीज संस्कार के
फिर से मन की जमीन में
तोड़ना होगा तिलिस्म व्यभिचार का
काटने होंगे पंख भोगी बाज के
नारी मांसल पिंड नहीं
सृजन का गीत है
सृष्टि पर सृष्टि की जीत है
ये बात
हर माँ को घुट्टी में
पिलानी होगी
बहिन को राखी में
पिरोनी होगी
कराना होगा ध्यान पिता को
निज पगड़ी का
दिखानी होगी भाई को
कॉलर अपनी कमीज की
तब निश्चय ही फूटेगा अंकुर
नारी सम्मान का
होगा मस्तक फिर ऊँचा
नारी स्वाभिमान का ।
अशोक दीप✍️
जयपुर