नारी तख़्तोताज़ पलटती
“नारी तख़्तोताज़ पलटती”
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अधिकारों का मोल जानकर
नारी तख़्तोताज़ पलटती,
धर्म, अर्थ, संसद, न्यायालय
राजनीति की चालें चलती।
अंगारों के पथ पर चलकर
ज़ुल्म कँटीले सह जाती है,
देकर आहुति अरमानों की
मूक कहानी कह जाती है।
लक्ष्मी, काली, सीता जैसी
शक्ति का अवतार है बनती,
घर-बाहर का काम साधकर
सिंहवाहिनी पीड़ा हरती।
ये सहधर्मिणी,संस्कारिणी
सौम्य, सुकुमारी, अर्पिता है,
वंशधारी संतान जनकर
पुरुष को देती पूर्णता है।
जब आँख खुली तो जग जाना
अबला ना नारी भारी है,
त्याग, समर्पण करती आई
ये नर से कभी न हारी है।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
महमूरगंज, वाराणसी
संपादिका-साहित्य धरोहर