नाराज़ है कलम
नाराज़ है कलम, और ये हाथ भी नाराज़ है,
अल्फ़ाज़ भी हैं रूठे से,
काग़ज़ का भी बिगड़ा मिजाज़ है,
दौर है ये कश्मकश का,
मुठ्ठी भर कीमत और ख्वाहिशों से भरा आसमान है,
ख्वाब और रात की अनबन चल रही है,
मज़ीद मेरा दिल परेशान है,
फ़ेहरिस्त काफ़ी है शरीर को कैद करने की,
ज़िंदा हूं,
क्यूंकि रूह आज़ाद है,
रौशनी,
आफताब
सब दिन के साथ ढल गए,
अब बस मैं,
मेरी बातें
और शाम ही शाम है..!