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24 Jun 2021 · 1 min read

नाम हथेली पर​

ये आँधियां मेरी राह में उठती क्यूँ है।
जिंदगी महीना-ए-निस्फ़ सी लगती क्यूँ है।
धङकने से क्या हासिल,कुछ कह तो सही
शिद्द्ते गम को खामोश ही सहती क्यूँ है।
खत ये कहते है कि फ़ुरकत है मन्जूर उसको
मेरा नाम हथेली पे मगर लिखती क्यूँ है।
वक्त-ए-आजार मेरे आँगन में देती नहीं दस्तक
मोका-ए-शाद फिर चश्म सें निकलती क्यूँ है।
कुछ तो हरा है सूखे पेङों जर्द पत्तों के सिवा
वर्ना कजा रोज मेरे कूचा में टहलती क्यूँ है।
सागर घङसानवी

1 Like · 285 Views
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