नाद में मंजीर के बहता रहा
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ऊँघकर, ज्यों बाग में थोड़ा भ्रमर,
स्वप्न की रसधार में तिरता रहा;
मंजरी की ख़ुश्बुओं में डूबकर,
नाद में मंजीर के बहता रहा।
फूल को डर था न काँटों से कभी,
राह तक – तक कर हँसा है जो अभी;
मोह ना बस क्रूरता पहचान है,
आह से अब तक रहा अनजान है।
बूँद से थोड़ा कभी ज्यादा सितम,
गूँजनों में गूँज के गूँजित रहा;
मंजरी की ख़ुश्बुओं में डूबकर,
नाद में मंजीर के बहता रहा।
चीखकर, अब पुष्प भी मुँह आह भर,
सींचतें सारा चमन असु डाल कर;
वेदना की वादियों में झूमते,
सृष्टि के कण से गगन को चूमते।
नीड़ में जीवन बड़ा कुंठित लिये,
वार चहुँ दिशि से सदा करता रहा;
मंजरी की ख़ुश्बुओं में डूबकर,
नाद में मंजीर के बहता रहा।
मसि नहीं, असि से सदा यारी रही,
बात यह आख़िर सजी वादी रही;
जी रहा क्यूँ काट-खाकर फूल को,
तोड़ता ख़ुद ही सभी ऊसूल को।
त्यागता हूँ सृष्टि में रसपान अब,
रो निशा में चाँद से कहता रहा;
मंजरी की ख़ुश्बुओं में डूबकर,
नाद में मंजीर के बहता रहा।
ऊँघकर ज्यों बाग में थोड़ा भ्रमर,
स्वप्न की रसधार में तिरता रहा;
मंजरी की ख़ुश्बुओं में डूबकर,
नाद में मंजीर के बहता रहा।
…“निश्छल”