नाथू राम जरा बतलाओ
नाथू राम जरा बतलाओ,
गांधी को तुम क्यों मारा।
वयोवृद्ध की हत्या करके,
खुद बन गए एक हत्यारा।
सत्य अहिंसा पथ चलते थे,
नहीं करते कोई अगर मगर।
तुम भी दिल से अपनाते थे,
गाँधीजी की कही डगर।
राम नाम धुन गाने वाला,
तुमको अतिसय प्यारा था।
सत्य अहिंसा राह छोड़ना,
तुमको नहीं गंवारा था।
सहसा बदल गए क्यों ऐसे,
क्यों हट गया गांधी से मन।
ऐसी कौन बात थी नाथू,
गांधी बन गए एक दुश्मन।
अगर कोई परिवाद था मन में,
जाकर वार्ता तुम करते।
तर्क वितर्क कुतर्क कराते,
बातचीत से न डरते।
तब भी कोई न मिलता पथ,
बल्लभजी से कहते बात।
उन सम योग्य बहुत थे सारे,
कहते अपने सब जज्बात।
ब्राह्मण कुल जन्म लिया था,
नियम कायदों का था ज्ञान।
फिर भी गोली की भाषा चुन,
कितने बन गए तुम नादान।
चलो मान लिया अंतर मन में,
देश विभक्ति की पीड़ा थी।
रक्तवाहनी धमनी दरिया,
करती तांडव क्रीड़ा थी।
बल्लभ अगुआ न बन पाए,
मन तेरा अकुलाया था।
या नेहरू का मुखिया बनना,
तुमको नहीं सुहाया था।
धर्म निरपेक्ष के ताना बाना,
से तुम्हें बहुत शिकायत थी।
या फिर बटवारा करने में,
खामी की बहुतायत थी।
हत्या लूट बलात्कार ने,
नभ जल थल तक शोर किया।
कौमी दंगा बटवारे का,
तुमको था झकझोर दिया।
लाखों लोग मर गए जिसमें,
असह दर्द न सह पाये।
आजादी के बाद का भारत,
हो कैसा न कह पाये।
कितनी बड़ी समस्या आये,
कतई उचित नहीं गोली।
हर बाधा पर भारी पड़ती,
बातचीत मीठी बोली।
नाथूराम करेगा ऐसा,
गांधी को तृण भर न भान।
कोई उनका सच्चा अनुचर,
सहसा करेगा यूँ सन्धान।
बूढ़े गांधी चला करते थे,
डंडे के अवलम्बन से।
वैसे ही वे मरे हुए थे,
अक्षम लगते तन मन से।
केवल एकला नहीं थे दोषी,
तेरा गलत पैमाना था।
नाथूराम तुम्हें गाँधी पर,
गोली नहीं चलाना था।
निंदित काम किया जो तुमने,
बदनामी ही मिली खासी।
गांधी जी तो अमर हो गए,
तुम्हें मिली केवल फांसी।
-सतीश सृजन, लखनऊ.