नाते शरीफ़
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मुस्तफ़ा की उल्फ़त ही —मेरा हर ख़ज़ाना है
उनके पाॅय अक़्दस में –अब मिरा ठिकाना है
दोस्ती ज़माने की अब—– समझ नहीं आती
दो जहां के दिलबर से-हमको दिल लगाना है
इख़्तियार उनका ही हो —चुका दिलो-जाँ पर
जिनका सारी दुनिया पे फ़ज़्ले- मालिकाना है
चूमते क़दम जिनके ——-चाँद क़हक़शां तारे
दो जहां की हर शै का —उनसे आशिक़ाना है
शक़्ले-पीर में “प्रीतम”— प्रीत कर मुहम्मद से
हुक़्म पर शहे-दीं के— अपना सिर झुकाना है
प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती (उ०प्र०)