नाटक नौटंकी
गीतिका
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नाटक नौटंकी करते हैं, धन दौलत की चाह बहुत। औरों को बस स्वप्न दिखाते, है अपनी परवाह बहुत।
राजनीति के आदर्शों की, नित्य गिरा देते गरिमा।
कार्य अनैतिक करने का बस, होता है उत्साह बहुत।
तृप्त दिखाते रहते खुद को, पेट भरा अभिनय करते।
चरने हेतु उन्हें चाहिए, रात दिन चरागाह बहुत।
जन सेवा की खातिर देखो, सब कुछ दांव लगाते हैं।
रूपक नये नये दिखलाते, करते हैं गुमराह बहुत।
जनसेवा का काम देखिए, रास नहीं आता इनको।
नट जैसे रस्सी पर चलते, सरल नहीं है राह बहुत।
किसी के भी जीवन मृत्यु से, इनको फर्क नहीं पड़ता।
केवल दौलत पर ही रहती, इनकी कुटिल निगाह बहुत।
मोती गहराई में मिलते, डुबकी खूब लगानी है।
ऊंची ऊंची लहरें इसकी, गहरा सिंधु अथाह बहुत।
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-सुरेन्द्रपाल वैद्य, २१/०५/२०२४