……..नाच उठी एकाकी काया
संबंधों की टहनी टाँके फूल
वक्त बदला बन गये शूल
झूठ का आडंबर रचा है
रिश्ते हैं या एक सज़ा है
विरक्ति हो गई है कबसे
इससे उससे शायद सबसे
छूट गया हूँ मैं अकेला
चारों तरफ़ मेला ही मेला
मेले में और अधिक अकेला
भाय न मुझको अब ये मेला
रास आने लगा एकाकीपन
साथी मेरा मैं और मेरा मन
घंटों संग मेरे बैठता है एकांत
समझाता सहलाता करता शांत
अकेलेपन के पहिये सवार अक्सर
घूमता रहता हूँ अपनी देह के भीतर
चलता रुकता सुनता अंतस् के भाव
होने लगा ख़ुद से झीना झीना लगाव
अपनी चाह राह अपना संगीत सजाया
सुर के सोते फूटे नाच उठी एकाकी काया
रेखांकनIरेखा ड्रोलिया