कुकुरमुत्ते
दहलीज के ठीक सामने
अकड़ कर उग आए हैं
सर पर छाता-सा रख,
वर्षा के जल को थामने
कुछ कुकुरमुत्ते!
नहीं किसी ने नहीं किया
उपकार खाद का,
नहीं दिया स्नेह और
नहीं की तैयार भूमि… उगाने को,
फिर भी पा स्पर्श अचला का
बिना किसी अंकुर के,
धरा के स्वेद से फटकर
निकले हैं ये कुकुरमुत्ते!
अनायास ही निकल आए
नहीं बुलावा भेजा किसी ने,
कोई नहीं करता दृष्टि
किचड़ के जो हार बनते,
नहीं बसेरा रखते पंछी भी
बिन शाखों के है ये तने,
किसी भोग के काबिल नहीं
फिर भी उग आए कुकुरमुत्ते!
देवालयों में स्थान नहीं,
न ही गृहशोभा के लिए
पांव तले कुचले जाते,
एक रूप जलज-से दीए
कौन स्पर्श देता..कब?
कौन इनका ठांव रखे?
अभागे, अनमने-से
है बस सबसे अछूते!
अवनि आंचल के कुकुरमुत्ते!
न गंध न कुसुम रूप में
न बनते श्रंगार-पात्र,
इसने अनंत काल से भोगा
क्षोभ केवल अलगाव का,
फिर हैं स्वतंत्र, मनमौजी,
किसी के हाथों से नहीं टूटे!
चिर काल तक जीते,मरते,
स्वयंप्रभा के कुकुरमुत्ते!!
रोहताश वर्मा ” मुसाफ़िर “