नाख़ूनों पर
आँखें फिर जल रहीं हैं
फिर जकड़ लिया है बदन को किसी ने
फिर अधरों को आभास हो रहा है
कि जिस प्याले को अपना समझा
उसमें न मधु था, न नीर, न रेत ही
कि जिसकी मृगतृष्णा ही खींच लेती कुछ दूर!
चाहता तो हूंँ
कि एक लंबी सांँस भर कर
चूम लूंँ तुम्हारा तेजस्वी ललाट
लेकिन मैं
तुम्हारे कबूतर नुमा उजले पाँवों के
चिकने-चिकने नाख़ूनों तक ही सीमित रह गया
चढ़ता हूंँ और फिसल जाता हूंँ !
अब तुम्हें ही आना होगा
और चूमना होगा मेरा माथा
इतना हौले इतना हौले
कि मेरे माथे की नस ही फट जाए !
आत्महत्या अपराध है
और मैं भी भययुक्त
प्रेम करती हो !
तो क्या मेरे लिए
मुझे मार नहीं सकती तुम ?
-आकाश अगम
यह उपमा धर्मवीर भारती जी के उपन्यास गुनाहों के देवता से ली गई है ।