नहीं है पूर्ण आजादी
#विधा – विधाता छंद
अरे भारत! उठो आँखें, ज़रा तुम खोल कर देखो।
यही है वक्त जगने का, हृदय को तोल कर देखो।
हुए आज़ाद कहने को, नहीं है पूर्ण आज़ादी।
बिना घर-बार के रोती, अभी भी अर्ध आबादी।
उगा सूरज नहीं अब तक, अँधेरी रात काली है।
सुरक्षित है नहीं बेटी, डरा हर एक माली है।
उठा लो हाथ में बंशी, मधुर रस घोल कर देखो।
अरे भारत! उठो, आँखें ज़रा तुम खोल कर देखो।
बने थे मूकदर्शक तुम, लुटी जब देश की बेटी।
बचा पाया नहीं कोई, मिली थी आग पर लेटी।
तड़पते भूख से बच्चे,न मिलती आज भी रोटी।
बने हैं भेड़िया नेता, चबाते दीन की बोटी।
बढ़ा जो पाप भारी है, इसे भी झोल कर देखो।
अरे भारत! उठो आँखें, ज़रा तुम खोल कर देखो।
खड़ी है न्याय की देवी, लगा कर आँख पर पट्टी।
कचहरी कोर्ट का चक्कर, मिला कर रख दिया मिट्टी।
हुए पथ भ्रष्ट सब नेता, लुटा कर देश को खाते।
गलत है भावना इनकी, रहे छल से जुड़े नाते।
तिरंगा हाथ में लेकर, तनिक तुम डोल कर देखो।
अरे भारत! उठो आँखें, ज़रा तुम खोल कर देखो।
नहीं ये देश फिर उजड़े, नहीं विध्वंश हो पाये।
सहे जो आज तक हमने, नहीं वो दंश हो पाये।
मशालें हाथ में ले लो, चलो कुछ कर दिखाना है।
रहे खुशहाल जिसमें सब, वही जन्नत बनाना है।
मरेंगे देश के हित में, खुशी से बोल कर देखो।
अरे भारत! उठो आँखें ,ज़रा तुम खोल कर देखो।
लक्ष्मी सिंह
नई दिल्ली