नहीं उम्र भर तबियत कुछ देर बहल जाएगी
नहीं उम्र भर तबियत कुछ देर बहल जाएगी
तमन्ना -ए-दिल है जहाँ फिर मचल जाएगी
वो परबत ज़रूर है पर पत्थर का नहीं
दिखेगी आँच ज़रा और बर्फ़ पिघल जाएगी
नीम-बेहोशी में जो फ़ैसले लिए हमने
यक़ीनन उन्ही से ज़ीस्त़ संभल जाएगी
साकी है पैमाना मेरा चटका हुआ
कुछ उपर से कुछ नीचे से निकल जाएगी
बनाने वाला तस्वीर में नहीं होता
पहचानी फिर भी उसकी शकल जाएगी
काफ़िए भी आ गये चलकर लफ़्ज़ों के साथ
किसी की याद में लिखी अब ग़ज़ल जाएगी
नुक़सान के देखे हज़ारों फ़ायदे ‘सरु’
मुनाफ़ो के दौर से आगे निकल जाएगी