नशा
कोई न कोई नशा,
सबके हृदय में बसा।
गांजा या भांग हो,
या अफीम की मांग हो।
शराब की अपनी अदा है,
वो क्या जाने जो इससे जुदा है।
पैसा हो रूप हो,
या कहीं का भूप हो।
मद में फंसा है।
पद में भी एक नशा है,
हुस्न का शुरुर है,
ताकत का गुरूर है।
कम या ज्यादा,
पर होता जरूर है।
केवल पूरे सन्त जो,
होते बेअंत जो।
नशा उनसे दूर है,
नम्रता भरपूर है।
अच्छा नशा भक्ति है,
मिलती बहुत शक्ति है।
सहज अनुरक्ति है।
प्रेम है विरक्ति है।
कोई न कोई नशा,
सबके हृदय में बसा।
बाकी सब बेकार है,
सच्चा नशा प्यार है।
सतीश सृजन, लखनऊ.