नशा ! तुम्हारा सर्वनाश हो
नशा ! तुम्हारा सर्वनाश हो, तुम सबसे बढ़के पिशाच हो.
अच्छे भले मनुज फँस जाएँ, तेरे हुस्न पर मर मिट जाएँ,
उलझन से मुक्ती पाने को, तेरी शरण व्यथित आने को.
तुझमें इतना है आकर्षण, होता है रिश्तों में घर्षण.
तुझसे दूर रहे हर जीवन, ना कोई तेरे आस – पास हो.
नशा ! तुम्हारा सर्वनाश हो, तुम सबसे बढ़के पिशाच हो.
तुम जिस घर में रुक जाते हो, खुशियों को चुन-चुन खाते हो.
दुःख, दारिद्र, क्लेश के पोषक, सुख, संपत्ति प्रेम के शोषक.
तुझमें इतना है आकर्षण, बिक जाते हैं घर के बरतन.
प्रेम सना रिश्ता सड़ जाता, भले ही कितना अहम ख़ास हो.
नशा ! तुम्हारा सर्वनाश हो, तुम सबसे बढ़के पिशाच हो.
गृहणी हर पल घर बुनती है, उसी हेतु हर दुःख सहती है.
तेरे कहर को पहर – पहर में, ज़ज्ब किया है बेबस घर ने.
तुझमें इतना है आकर्षण, पति-पत्नी का तोड़ दे बंधन.
प्रेम के उन्नत उद्यानों में, गंधहीन सा तरू पलाश हो.
नशा ! तुम्हारा सर्वनाश हो, तुम सबसे बढ़के पिशाच हो.
तन, मन, धन को बारी-बारी, नशा बनाता सहज सवारी.
यकृत,वृक्क,फेफड़ों को खाता, कैंसर, टीवी,दमा का भ्राता.
तुझमें इतना है आकर्षण, विष बन जाए शीतल चन्दन.
देह आयु से पूर्व हो जर्जर, यम आलिंगन अनायास हो.
नशा ! तुम्हारा सर्वनाश हो, तुम सबसे बढ़के पिशाच हो.
प्रदीप तिवारी ‘धवल’