नशा इश्क़ का
न जाने ये कैसा नशा है
रहता नहीं मुझे अब होश है
भूल गया हूं सबकुछ मैं
इसमें न यारो मेरा कोई दोष है
सुध बुध खो जाते है तपस्वी भी
ये तो दिल से दिल का उदघोष है
देवता भी न रह सके अछूते इससे
इश्क में यहां हरकोई मदहोश है
कर जाता है कुछ भी इंसान
इसमें न उसका कोई दोष है
हो जाता है इश्क़ तो कभी भी
फिर वो माघ है या पौष है
है नहीं ये चीज़ कोई दिखावे की
इश्क़ वाले तो खुद में ही मदहोश है
न लगे ज़माने की नज़र तो
इश्क़ खुशियों का अक्षय कोष है
सुनकर नाम वो इश्क़ का
जाने क्यों आज खामोश है
नहीं छुपा सका वो अपना इश्क़
ज़माने से, यही उसका दोष है
बताने की नहीं करने की चीज़ है इश्क़
बढ़ पाता है वही आगे जिसको होश है
क्यों लग गई थी नज़र राधा के इश्क़ को
इस बात का समस्त जग को रोष है
मिल गई जिसको इश्क़ की सौगात
उसकी बाक़ी सारी इच्छाएं खामोश है
पड़ जाओ तुम भी इश्क़ में यारों
इश्क़ वालों को रहता न कोई होश है।