नव वर्ष
फिर एक बार बदली छाई
घिर घिर घटायें घिर आई
आशंका है अनजान की
जरूरत है पहचान की
कोरोना तो नहीं है पर
उसका बन्धु ओमिक्रान
मन में नहीं है उमंग
कैसा है नव वर्ष का रंग
आक्रान्त दीखता है मन
नष्ट हो रही है संकल्पनाएं
उठती गिरती है दुविधाएं
भविष्य भी है न सुनिश्चित
सुनाई देती आहट किंचित
फिर हो कैसे मन सिंचित
दिल में नहीं है तरंग
कैसा है नव वर्ष का रंग
नौनिहाल का कैसा आसमां
हर मंजर दीखता खफा खफा
कागज पेन्सिल कहे दास्तां
स्कूल दीखने लगे रेगिस्तां
आ गयी है कोई अला बला
बस ईश्वर का ही संग
कैसा है नव वर्ष का रंग
चौकड़ी भर रहे है युवक
पाने के लिए ऊँची उड़ान
जोश में गा रहे है नव गान
रचना चाहते है नव विहान
नव वर्ष का करे आह्वान
यहीं है उनका ढ़ग
धूमिल हुआ नव वर्ष रंग