नव भानु
देखो भटक रहा है अभी उजाला तम के ही गलियारे में,
कितने दीपक बलि चढ़ गए अब तक इस गहरे अंधियारे में।
तम के इस काले साये को तो अब दूर हटाना ही होगा,
दीपों से टले अंधियार नहीं नव भानु उगाना ही होगा।
कैसे आज मनुजता दफन हुई है स्वर्ण खचित प्रासादों में?
कैसे पीकर खूं का घूंट या कि वह खोई है अवसादों में।
है विष का उपचार यही हमको अब अमी जुटाना ही होगा।
दीपों से टले अंधियार नहीं नव भानु उगाना ही होगा।
कैसे आदर्शों को कर खंड-खंड वे खड़े पतन के द्वार पर,
देखो तृष्णा और वासना हॅंसते आज मनुज की इस हार पर।
हमको निविड निशा से मानव का मन मुक्त कराना ही होगा।
दीपों से टले अंधियार नहीं नव भानु उगाना ही होगा।
कैसे अबला की अस्मत लुटने पर महफिलें लोग सजाते हैं।
किसी स्त्री का चीर हरण होता रक्षक मिलके जश्न मनाते हैं।
छोड़ो करूण पुकार तिये ! तुम्हें खुद चीर बढ़ाना ही होगा।
दीपों से टले अंधियार नहीं नव भानु उगाना ही होगा।
बिक जाता है जहाॅं युवा धन के भूखे लोगों की चाहों में,
और विवश युवतियाॅं सिसक रही है दान दहेज की बाहों में।
रे मानव! इस नव दानव का तुमको दाह कराना ही होगा।
दीपों से टले अंधियार नहीं नव भानु उगाना ही होगा।
अरे युवाओं! नए सृजन की दुनिया में ऑंधी आज चला दो,
वाणी- पुत्रों ! भ्रष्ट व्यवस्था में नए गीतों से आग लगा दो।
पर पहले मन के सागर में इक तूफान उठाना ही होगा।
दीपों से टले अंधियार नहीं नव भानु उगाना ही होगा।
प्रतिभा आर्य
चेतन एनक्लेव
अलवर (राजस्थान)