नवांकुर
“सोच का नवांकुर”
मैं कक्षा आठवीं में पढ़ा रही थी तभी एक पहली कक्षा की छात्रा अंदर आई, बच्चे अक्सर शाला के अंदर आते रहते बिना किसी झिझक के ,कभी ग्रुप में कभी अकेले आते विजिट करते रहते एक दूसरे से चर्चा करते हैं उस दिन वह आई ,लेकिन ! एक कागज के टुकड़े के साथ ,मुझे देने के लिए मुझे जब उसने दिया तब मैंने उससे पूछा कि क्या है यह? उसने बताया कि चित्र बनाया है। बच्चे मुझे अपने बनाए हुए चित्र देने आते कभी कागज लेने कभी, चौक लेने ,कभी चित्र देने आते हैं मैंने चित्र देखकर पूछा यह किसका चित्र बनाया है तुमने तो कहने लगी मंदिर का फिर मैंने पूछा कि यह क्या है तो उसने कहा कि पेड़ है तो मैंने कहा पेड़ तो हरा होता है यह तो लाल है बाहर देखो पेड़ तो हरे होते हैं । वह कुछ सोच में डूब गई कि हां यह तो हरे हैं, दूसरे चित्र में पूछा तो कहां कि पता नहीं मैंने तो किताब से देखकर बनाया है तब मैंने कहा किताब से क्यों बनाया यह सब तो अपने आसपास भी हैं देखो बाहर, और उसी टुकड़े को पलट कर उसे दिया और कहां जाओ उस चबूतरे पर बैठकर चित्र बनाओ जो तुम्हें दिखाई दे वह बनाओ । कुछ देर बाद वह चित्र लेकर आई और मैंने पूछा क्या बनाया है उसने बताया अपनी स्कूल बनाई है। चबूतरे के बिल्कुल सामने उसकी स्कूल है वास्तव में उसने सामने का दरवाजा दो खिड़की सीढ़ी वही नक्शा उसने बनाया आज उसके अंदर एक सोच का नवांकुर हो गया था