नववर्ष
तुम कहते हो ! नया साल ?
पर नए साल सी बात नही है।
प्राकृति सौन्दर्य सुवासित से,
ये धरा सुसज्जित नही हुई।
न कुसुम कहीं पर खिले और,
ये हवा सुगंधित नही हुई।
कोयल का राग, भ्रमर गुंजन,
तरु के नूतन पात नही है।
है धरा ठिठुरती सर्दी से,
मानव मन एक निराशा है।
सूरज की तपिश मंद लगती,
चहुँदिशि घन धुंध कुहासा है।
रहते हैं सभी बन्द घर में,
खुशनुमा अभी हालात नही है।
खग-विहग शांत उद्विग्न और,
है शीत सलिल में मीन दुखी।
नर्तन बिन मोर हुए व्याकुल,
कैसा नववर्ष ? न कोई’ सुखी।
तुम झूठा पर्व मनाते, पर
अपनी ये सौगात नही है।
अभिनव मिश्र अदम्य