नवयुग का आगाज़
नवयुग का आगाज़
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मंद हुआ वासंती झालर, बंद महक, चिड़िया चहकार;
बागीचों में, बागानों में, मूक खड़े पादप फ़नकार।
द्रवित नेत्र सुंदर पुष्पों के, नहीं मिले नन्हीं पुचकार;
नन्हे हाथों ने थामा अब, मोबाइल का दामन, भार।
गुंजन ना गूँजे कानों में, बड़ा मशीनी है परिवार;
रहें साथ नित ही निशि वासर, नहीं दीखता फिर भी प्यार।
फिरता रहे उदासी भरकर, बगियन में गुमसुम मधुमास;
तितली भी अब सुस्त हो गई, पीछे ना भटकें बदमाश।
छुट्टी बीत गयी गरमी की, नहीं दिखे पग बाहर चार;
बंद सलाख़ों सी दीवारें, करती हैं उनका दीदार।
हवा शुद्ध क्या होती है यह, नहीं पता उनको पहचान;
अनुकूलित हो गये घरों में, गैजेट घेरे हुए महान।
जब से कागज लगा सिमटने, इंटरनेटी सभी सुजान;
बच्चे टचस्क्रीन में उलझे, नैया अब बिल्कुल अनजान।
कहीं कलेजा ऐंठ खड़ी है, बरखा रानी बहुत उदास;
बादल भी बेढंगे दिखते, बरखा का जल हुआ निराश।
बहता पानी मोहल्ले से, बनकर दीन चला समंदर;
कागज की नाव नहीं एक भी, ना कोई नहाया अंदर।
कश्ती बस प्रेमी को जँचती, उनके प्रेम की मोहताज़;
मोबाइल से कर बैठे हैं, बच्चे नवयुग का आगाज़।
…“निश्छल”