नवगीत
**मजूरी पेट होती है**
कमाती और खाती है
मजूरी पेट होती है
कहीं है पालना माँ है
कहीं पोंछा कहीं बरतन
निरंतर नाम बदली है
किया है रूप परिवर्तन
पसीना बेच देती है
मजूरी रेट होती है
किसी के खेत का पानी
कुदाली खाद होती है
किसी की झोंपड़ी की छत
दबी बुनियाद होती है
किसी भी पहल के घर की
मजूरी गेट होती है
कहीं झालर सुभूषित सी
कहीं बिजली सुशोभित है
कहीं अखबार की बिक्री
कहीं पंडित-पुरोहित है
कहीं अगले महीने की
मजूरी डेट होती है
कहीं है पेचकश-पंचर
कहीं है साइकिल का नट
कहीं बनिहार कटनी की
कहीं है भोग-बंधक घट
गणित यह रोटियों की है
मजूरी चेट होती है
सड़क पर तोड़ती पत्थर
कनेठी शैल घाटी है
फुटेहरी बेचती तंगी
ढही खपरैल माटी है
गुबारे-नारियल-कटपिस
मजूरी जेट होती है
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
मेरठ